स्वाभिमान एक व्यक्ति को स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनाता है। जबकि अभिमानी व्यक्ति सदैव दूसरों पर अधिकार ही जमाता है, दूसरों से अपना काम कराता है और परावलंबी बनते जाता है। उसे यह लगता है कि यह तो सामनेवाले का मेरे प्रति कर्तव्य था। दोनों परिस्थितियों में बहुत ही बारीक सा भेद है जो दोनों को एक दूसरे से अलग करता है। प्रत्येक व्यक्ति में यह दोनों ही गुण विद्यमान रहते हैं, अंतर केवल हमारी सोच से प्राथमिकता देने का है।
अभिमानी व्यक्ति अपनी स्वार्थपूर्ति, हितों के लिए दूसरों के आहत होने की परवाह नहीं करता और स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के हितों को ध्यान में रखकर अपने अस्तित्व को बचाए रखता है।
अभिमान में व्यक्ति को केवल मैं दिखालाई देता है, जबकि स्वाभिमान में दूसरों के हितों के प्रति सतर्क रहता है। यदि महत्व दिया जाए तो अभिमानी दूसरों को छोटा समझने लगता है और स्वाभिमानी अपने कार्य की महत्वता को समझ कर उसकी मूल्य को जानता है।
अभिमानी सदैव अपने कार्यों की सफलता को गिनता रहता है। वह अधिकतर भूतकाल में जीता है। जबकि स्वाभिमानी सीख ले कर और अधिक उत्साही होकर नई योजना के साथ जुड़ जाता है उसे अंजाम तक लेकर जाने की पुरी कोशिश करने मे लग जाता है।
इतिहास के पन्नों से >
कहते हैं अभिमान तो सुवर्ण लंकापति रावण का भी नहीं टिक पाया, तो साधारण मानव क्या चीज है ? रावण को अपने ज्ञान और शक्ति का अभिमान था, वह सब पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था। कंस अभिमानी था क्योंकि वह अपनी शक्ति के बल पर राज करना चाहता था। राम ने रावण को मारा और कृष्ण ने कंस का अंत किया इसलिए राम और कृष्ण स्वाभिमानी कहे जाते हैं।
इतिहास गवाह है रावण हो या कंस, भस्मासुर हो या फिर राजा हिरण्यकश्यपु। इनका अभिमान केवल इनको विनाश की ओर ले गया।
किसी स्वाभिमानी ने क्या खूब कहा है,
हे प्रभु, आइना साफ़ किया तो मै नजर आया,
मै को साफ़ किया तो आप नजर आये।
अभिमान एवं स्वाभिमान में क्या अंतर है ?
Ego Vs Self Respect
चलो अब हम स्वाभिमान और अभिमान का फर्क देखेंगे -
>अभिमानी अपनी सीमाओं को पार कर दूसरों की सीमाओं में प्रवेश कर जाता है, जबकि एक स्वाभिमानी व्यक्ति अपनी व दूसरों के हितों की सीमाओं के प्रति सदैव सजग रहता है।
> अभिमानी का अपने स्वभाव पर नियंत्रण नहीं रहता, वो हमेशा अपनी बात थोपने की कोशिश करते रहता है। जबकि स्वाभिमानी का अपने स्वभाव पर नियंत्रण रहता है।
> अभिमानी अपने विरुद्ध कहीं बातें, आलोचना सहन नहीं कर पाता। जबकि स्वाभिमानी आलोचनाओं से सीख लेकर स्वयं को ओर अधिक परिपक़्व बनाता है।
> अभिमानी स्वयं को सर्वोपरि रखकर कार्य करता है। परंतु स्वाभिमानी व्यक्ति सबके हितों को ध्यान में रखकर कार्य करता है।
> अभिमानी सदैव दूसरों को शिक्षा देने में लगे रहते हैं, दूसरों के द्वारा किए गए कार्यों को वह तुच्छ समझते है। जबकि स्वाभिमानी दूसरों के गुणों की सराहना कर उन्हें भी महत्व देते हैं और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते है।
> अभिमानी सदैव अपनी कमियों को छुपाने का प्रयास करता हैं, वह कभी अपनी गलतियां स्वीकार नहीं करना चाहता। स्वाभिमानी अपनी कमियों को स्वीकार कर सीख लेता हैं, यदि उन्हें दूर किया जा सकता है तो इस दिशा में प्रयास करता हैं और सफल भी होता है।
> स्वाभिमानी व्यक्ति यह चाहता है कि केवल उसकी ही बातों को सुना जाए। दूसरे लोगों के विचारों को वह महत्वहीन समझता है। जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के हितों को ध्यान में रखता हैं। अपने विचार दूसरों पर नहीं थोपता, उन्हें भी बोलने की अनुमती देता है।
> एक अच्छा श्रोता होना स्वाभिमानी होने का कारक है क्योंकि वह सबसे कुछ न कुछ सीखने की सोच रखता है। वहीं एक अभिमानी व्यक्ति अपनी उपलब्धियों के लिए बड़ाई चाहता है, हमेशा अपना ही गुणगान सुनना पसंद करता है। वो ऐसे ही लोगों के बिच घिरा रहता है जहा उसकी वाह वाह होती है।
अभिमान के रास्ते बड़े सूक्ष्म होते हैं कभी यह त्याग के रास्ते आता है, कभी विनम्रता के, कभी भक्ति के, तो कभी स्वाभिमान के, इसकी पहचान करने का एक ही तरीका है जहां भी “मैं” का भाव उठे वहां अभिमान जानना चाहिए। स्वाभिमान हमारे डिगते कदमों को को ऊर्जावान कर उनमें दृढ़ता प्रदान करता है।
कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी स्वाभिमान हमें डिगने नहीं देता। अभिमान अज्ञान के अंधेरे में ढकेलता है। अभिमान मिथ्या ज्ञान, घमंड और अपने को बड़ा ताकतवर समझकर झूठा एवं दंभी बनाता है।
व्यक्ति को अपने ‘ज्ञान’ का ‘अभिमान’ तो होता है लेकिन अपने ‘अभिमान’ का ‘ज्ञान’ नहीं होता। इसलिए अपने स्वाभिमान को जांचते रहिये, कहीं ये अभिमान में तो नहीं बदल रहा है ?
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